1. मुझ प्राचीन की ओर से उस प्रिय गयुस के नाम, जिस से मैं सच्चा प्रेम रखता हूं॥
2. हे प्रिय, मेरी यह प्रार्थना है; कि जैसे तू आत्मिक उन्नति कर रहा है, वैसे ही तू सब बातों मे उन्नति करे, और भला चंगा रहे।
3. क्योंकि जब भाइयों ने आकर, तेरे उस सत्य की गवाही दी, जिस पर तू सचमुच चलता है, तो मैं बहुत ही आनन्दित हुआ।
4. मुझे इस से बढ़कर और कोई आनन्द नहीं, कि मैं सुनूं, कि मेरे लड़के-बाले सत्य पर चलते हैं।
5. हे प्रिय, जो कुछ तू उन भाइयों के साथ करता है, जो परदेशी भी हैं, उसे विश्वासी की नाईं करता है।
6. उन्होंने मण्डली के साम्हने तेरे प्रेम की गवाही दी थी: यदि तू उन्हें उस प्रकार विदा करेगा जिस प्रकार परमेश्वर के लोगों के लिये उचित है तो अच्छा करेगा।
7. क्योंकि वे उस नाम के लिये निकले हैं, और अन्यजातियों से कुछ नहीं लेते।
8. इसलिये ऐसों का स्वागत करना चाहिए, जिस से हम भी सत्य के पक्ष में उन के सहकर्मी हों॥
9. मैं ने मण्डली को कुछ लिखा था; पर दियुत्रिफेस जो उन में बड़ा बनना चाहता है, हमें ग्रहण नहीं करता।
10. सो जब मैं आऊंगा, तो उसके कामों की जो वह कर रहा है सुधि दिलाऊंगा, कि वह हमारे विषय में बुरी बुरी बातें बकता है; और इस पर भी सन्तोष न करके आप ही भाइयों को ग्रहण नहीं करता, और उन्हें जो ग्रहण करना चाहते हैं, मना करता है: और मण्डली से निकाल देता है।
11. हे प्रिय, बुराई के नहीं, पर भलाई के अनुयायी हो, जो भलाई करता है, वह परमेश्वर की ओर से है; पर जो बुराई करता है, उस ने परमेश्वर को नहीं देखा।
12. देमेत्रियुस के विषय में सब ने वरन सत्य ने भी आप ही गवाही दी: और हम भी गवाही देते हैं, और तू जानता है, कि हमारी गवाही सच्ची है॥
13. मुझे तुझ को बहुत कुछ लिखना तो था; पर सियाही और कलम से लिखना नहीं चाहता।
14. पर मुझे आशा है कि तुझ से शीघ्र भेंट करूंगा: तब हम आम्हने साम्हने बातचीत करेंगे: तुझे शान्ति मिलती रहे। यहां के मित्र तुझे नमस्कार करते हैं: वहां के मित्रों से नाम ले लेकर नमस्कार कह देना॥