1. {एलीपज का वचन} [PS] तब तेमानी एलीपज ने कहा [QBR]
2. “क्या बुद्धिमान को उचित है कि अज्ञानता के साथ उत्तर दे, [QBR] या अपने अन्तःकरण को पूर्वी पवन से भरे? [QBR]
3. क्या वह निष्फल वचनों से, [QBR] या व्यर्थ बातों से वाद-विवाद करे? [QBR]
4. वरन् तू परमेश्वर का भय मानना छोड़ देता, [QBR] और परमेश्वर की भक्ति करना औरों से भी छुड़ाता है। [QBR]
5. तू अपने मुँह से अपना अधर्म प्रगट करता है, [QBR] और धूर्त लोगों के बोलने की रीति पर बोलता है। [QBR]
6. मैं तो नहीं परन्तु तेरा मुँह ही तुझे दोषी ठहराता है; [QBR] और तेरे ही वचन तेरे विरुद्ध साक्षी देते हैं। [QBR]
7. “क्या पहला मनुष्य तू ही उत्पन्न हुआ? [QBR] क्या तेरी उत्पत्ति पहाड़ों से भी पहले हुई? [QBR]
8. क्या तू परमेश्वर की सभा में बैठा सुनता था? [QBR] क्या बुद्धि का ठेका तू ही ने ले रखा है (यिर्म. 23:18, 1 कुरि. 2:16) [QBR]
9. तू ऐसा क्या जानता है जिसे हम नहीं जानते? [QBR] तुझ में ऐसी कौन सी समझ है जो हम में नहीं? [QBR]
10. हम लोगों में तो पक्के बालवाले और अति पुरनिये मनुष्य हैं, [QBR] जो तेरे पिता से भी बहुत आयु के हैं। [QBR]
11. परमेश्वर की शान्तिदायक बातें, [QBR] और जो वचन तेरे लिये कोमल हैं, क्या ये तेरी दृष्टि में तुच्छ हैं? [QBR]
12. तेरा मन क्यों तुझे खींच ले जाता है? [QBR] और तू आँख से क्यों इशारे करता है? [QBR]
13. तू भी अपनी आत्मा परमेश्वर के विरुद्ध करता है, [QBR] और अपने मुँह से व्यर्थ बातें निकलने देता है। [QBR]
14. मनुष्य है क्या कि वह निष्कलंक हो? [QBR] और जो स्त्री से उत्पन्न हुआ वह है क्या कि निर्दोष हो सके? [QBR]
15. देख, वह अपने पवित्रों पर भी विश्वास नहीं करता, [QBR] और स्वर्ग भी उसकी दृष्टि में निर्मल नहीं है। [QBR]
16. फिर मनुष्य अधिक घिनौना और भ्रष्ट है जो [QBR] कुटिलता को पानी के समान पीता है। [QBR]
17. “मैं तुझे समझा दूँगा, इसलिए मेरी सुन ले, [QBR] जो मैंने देखा है, उसी का वर्णन मैं करता हूँ। [QBR]
18. (वे ही बातें जो बुद्धिमानों ने अपने पुरखाओं से सुनकर [QBR] बिना छिपाए बताया है। [QBR]
19. केवल उन्हीं को देश दिया गया था, [QBR] और उनके मध्य में कोई विदेशी आता-जाता नहीं था।) [QBR]
20. दुष्ट जन जीवन भर पीड़ा से तड़पता है, और [QBR] उपद्रवी के वर्षों की गिनती ठहराई हुई है। [QBR]
21. उसके कान में डरावना शब्द गूँजता रहता है, [QBR] कुशल के समय भी नाश करनेवाला उस पर आ पड़ता है। [QBR]
22. उसे अंधियारे में से फिर निकलने की कुछ आशा नहीं होती, [QBR] और तलवार उसकी घात में रहती है। [QBR]
23. वह रोटी के लिये मारा-मारा फिरता है, कि कहाँ मिलेगी? [QBR] उसे निश्चय रहता है, कि अंधकार का दिन मेरे पास ही है। [QBR]
24. संकट और दुर्घटना से उसको डर लगता रहता है, [QBR] ऐसे राजा के समान जो युद्ध के लिये तैयार हो*, वे उस पर प्रबल होते हैं। [QBR]
25. उसने तो परमेश्वर के विरुद्ध हाथ बढ़ाया है, [QBR] और सर्वशक्तिमान के विरुद्ध वह ताल ठोंकता है, [QBR]
26. और सिर उठाकर और अपनी मोटी-मोटी [QBR] ढालें दिखाता हुआ घमण्ड से उस पर धावा करता है; [QBR]
27. इसलिए कि उसके मुँह पर चिकनाई छा गई है, [QBR] और उसकी कमर में चर्बी जमी है। [QBR]
28. और वह उजाड़े हुए नगरों में बस गया है, [QBR] और जो घर रहने योग्य नहीं, [QBR] और खण्डहर होने को छोड़े गए हैं, उनमें बस गया है। [QBR]
29. वह धनी न रहेगा, ओर न उसकी सम्पत्ति बनी रहेगी, [QBR] और ऐसे लोगों के खेत की उपज भूमि की ओर न झुकने पाएगी। [QBR]
30. वह अंधियारे से कभी न निकलेगा, [QBR] और उसकी डालियाँ आग की लपट से झुलस जाएँगी, [QBR] और परमेश्वर के मुँह की श्वास से वह उड़ जाएगा। [QBR]
31. वह अपने को धोखा देकर व्यर्थ बातों का भरोसा न करे, [QBR] क्योंकि उसका प्रतिफल धोखा ही होगा। [QBR]
32. वह उसके नियत दिन से पहले पूरा हो जाएगा; [QBR] उसकी डालियाँ हरी न रहेंगी। [QBR]
33. दाख के समान उसके कच्चे फल झड़ जाएँगे, [QBR] और उसके फूल जैतून के वृक्ष के समान गिरेंगे। [QBR]
34. क्योंकि भक्तिहीन के परिवार से कुछ बन न पड़ेगा, [QBR] और जो घूस लेते हैं, उनके तम्बू आग से जल जाएँगे। [QBR]
35. उनको उपद्रव का गर्भ रहता, और वे अनर्थ को जन्म देते है* [QBR] और वे अपने अन्तःकरण में छल की बातें गढ़ते हैं।” [PE]