पवित्र बाइबिल

भगवान का अनुग्रह उपहार
भजन संहिता
1. {सृष्टिकर्ता की स्तुति} [PS] हे मेरे मन, तू यहोवा को धन्य कह! [QBR] हे मेरे परमेश्‍वर यहोवा, [QBR] तू अत्यन्त महान है! [QBR] तू वैभव और ऐश्वर्य का वस्त्र पहने हुए है, [QBR]
2. तू उजियाले को चादर के समान ओढ़े रहता है, [QBR] और आकाश को तम्बू के समान ताने रहता है, [QBR]
3. तू अपनी अटारियों की कड़ियाँ जल में धरता है, [QBR] और मेघों को अपना रथ बनाता है, [QBR] और पवन के पंखों पर चलता है, [QBR]
4. तू पवनों को अपने दूत, [QBR] और धधकती आग को अपने सेवक बनाता है। (इब्रा. 1:7) [QBR]
5. तूने पृथ्वी को उसकी नींव पर स्थिर किया है, [QBR] ताकि वह कभी न डगमगाए। [QBR]
6. तूने उसको गहरे सागर से ढाँप दिया है जैसे वस्त्र से; [QBR] जल पहाड़ों के ऊपर ठहर गया। [QBR]
7. तेरी घुड़की से वह भाग गया; [QBR] तेरे गरजने का शब्द सुनते ही, वह उतावली करके बह गया। [QBR]
8. वह पहाड़ों पर चढ़ गया, और तराइयों के मार्ग से उस स्थान में उतर गया [QBR] जिसे तूने उसके लिये तैयार किया था। [QBR]
9. तूने एक सीमा ठहराई जिसको वह नहीं लाँघ सकता है, [QBR] और न लौटकर स्थल को ढाँप सकता है। [QBR]
10. तू तराइयों में सोतों को बहाता है*; [QBR] वे पहाड़ों के बीच से बहते हैं, [QBR]
11. उनसे मैदान के सब जीव-जन्तु जल पीते हैं; [QBR] जंगली गदहे भी अपनी प्यास बुझा लेते हैं। [QBR]
12. उनके पास आकाश के पक्षी बसेरा करते, [QBR] और डालियों के बीच में से बोलते हैं। (मत्ती 13:32) [QBR]
13. तू अपनी अटारियों में से पहाड़ों को सींचता है, [QBR] तेरे कामों के फल से पृथ्वी तृप्त रहती है। [QBR]
14. तू पशुओं के लिये घास, [QBR] और मनुष्यों के काम के लिये अन्न आदि उपजाता है, [QBR] और इस रीति भूमि से वह भोजन-वस्तुएँ उत्‍पन्‍न करता है [QBR]
15. और दाखमधु जिससे मनुष्य का मन आनन्दित होता है, [QBR] और तेल जिससे उसका मुख चमकता है, [QBR] और अन्न जिससे वह सम्भल जाता है। [QBR]
16. यहोवा के वृक्ष तृप्त रहते हैं, [QBR] अर्थात् लबानोन के देवदार जो उसी के लगाए हुए हैं। [QBR]
17. उनमें चिड़ियाँ अपने घोंसले बनाती हैं; [QBR] सारस का बसेरा सनोवर के वृक्षों में होता है। [QBR]
18. ऊँचे पहाड़ जंगली बकरों के लिये हैं; [QBR] और चट्टानें शापानों के शरणस्थान हैं। [QBR]
19. उसने नियत समयों के लिये चन्द्रमा को बनाया है*; [QBR] सूर्य अपने अस्त होने का समय जानता है। [QBR]
20. तू अंधकार करता है, तब रात हो जाती है; [QBR] जिसमें वन के सब जीव-जन्तु घूमते-फिरते हैं। [QBR]
21. जवान सिंह अहेर के लिये गर्जते हैं, [QBR] और परमेश्‍वर से अपना आहार माँगते हैं। [QBR]
22. सूर्य उदय होते ही वे चले जाते हैं [QBR] और अपनी माँदों में विश्राम करते हैं। [QBR]
23. तब मनुष्य अपने काम के लिये [QBR] और संध्या तक परिश्रम करने के लिये निकलता है। [QBR]
24. हे यहोवा, तेरे काम अनगिनत हैं! [QBR] इन सब वस्तुओं को तूने बुद्धि से बनाया है; [QBR] पृथ्वी तेरी सम्पत्ति से परिपूर्ण है। [QBR]
25. इसी प्रकार समुद्र बड़ा और बहुत ही चौड़ा है, [QBR] और उसमें अनगिनत जलचर जीव-जन्तु, [QBR] क्या छोटे, क्या बड़े भरे पड़े हैं। [QBR]
26. उसमें जहाज भी आते जाते हैं, [QBR] और लिव्यातान भी जिसे तूने वहाँ खेलने के लिये बनाया है। [QBR]
27. इन सब को तेरा ही आसरा है, [QBR] कि तू उनका आहार समय पर दिया करे। [QBR]
28. तू उन्हें देता है, वे चुन लेते हैं; [QBR] तू अपनी मुट्ठी खोलता है और वे उत्तम पदार्थों से तृप्त होते हैं। [QBR]
29. तू मुख फेर लेता है, और वे घबरा जाते हैं; [QBR] तू उनकी साँस ले लेता है, और उनके प्राण छूट जाते हैं [QBR] और मिट्टी में फिर मिल जाते हैं। [QBR]
30. फिर तू अपनी ओर से साँस भेजता है, और वे सिरजे जाते हैं; [QBR] और तू धरती को नया कर देता है*। [QBR]
31. यहोवा की महिमा सदा काल बनी रहे, [QBR] यहोवा अपने कामों से आनन्दित होवे! [QBR]
32. उसकी दृष्टि ही से पृथ्वी काँप उठती है, [QBR] और उसके छूते ही पहाड़ों से धुआँ निकलता है। [QBR]
33. मैं जीवन भर यहोवा का गीत गाता रहूँगा; [QBR] जब तक मैं बना रहूँगा तब तक अपने परमेश्‍वर का भजन गाता रहूँगा। [QBR]
34. मेरे सोच-विचार उसको प्रिय लगे, [QBR] क्योंकि मैं तो यहोवा के कारण आनन्दित रहूँगा। [QBR]
35. पापी लोग पृथ्वी पर से मिट जाएँ, [QBR] और दुष्ट लोग आगे को न रहें! [QBR] हे मेरे मन यहोवा को धन्य कह! [QBR] यहोवा की स्तुति करो! [PE]

Notes

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भजन संहिता 104:44
सृष्टिकर्ता की स्तुति 1 हे मेरे मन, तू यहोवा को धन्य कह! हे मेरे परमेश्‍वर यहोवा, तू अत्यन्त महान है! तू वैभव और ऐश्वर्य का वस्त्र पहने हुए है, 2 तू उजियाले को चादर के समान ओढ़े रहता है, और आकाश को तम्बू के समान ताने रहता है, 3 तू अपनी अटारियों की कड़ियाँ जल में धरता है, और मेघों को अपना रथ बनाता है, और पवन के पंखों पर चलता है, 4 तू पवनों को अपने दूत, और धधकती आग को अपने सेवक बनाता है। (इब्रा. 1:7) 5 तूने पृथ्वी को उसकी नींव पर स्थिर किया है, ताकि वह कभी न डगमगाए। 6 तूने उसको गहरे सागर से ढाँप दिया है जैसे वस्त्र से; जल पहाड़ों के ऊपर ठहर गया। 7 तेरी घुड़की से वह भाग गया; तेरे गरजने का शब्द सुनते ही, वह उतावली करके बह गया। 8 वह पहाड़ों पर चढ़ गया, और तराइयों के मार्ग से उस स्थान में उतर गया जिसे तूने उसके लिये तैयार किया था। 9 तूने एक सीमा ठहराई जिसको वह नहीं लाँघ सकता है, और न लौटकर स्थल को ढाँप सकता है। 10 तू तराइयों में सोतों को बहाता है*; वे पहाड़ों के बीच से बहते हैं, 11 उनसे मैदान के सब जीव-जन्तु जल पीते हैं; जंगली गदहे भी अपनी प्यास बुझा लेते हैं। 12 उनके पास आकाश के पक्षी बसेरा करते, और डालियों के बीच में से बोलते हैं। (मत्ती 13:32) 13 तू अपनी अटारियों में से पहाड़ों को सींचता है, तेरे कामों के फल से पृथ्वी तृप्त रहती है। 14 तू पशुओं के लिये घास, और मनुष्यों के काम के लिये अन्न आदि उपजाता है, और इस रीति भूमि से वह भोजन-वस्तुएँ उत्‍पन्‍न करता है 15 और दाखमधु जिससे मनुष्य का मन आनन्दित होता है, और तेल जिससे उसका मुख चमकता है, और अन्न जिससे वह सम्भल जाता है। 16 यहोवा के वृक्ष तृप्त रहते हैं, अर्थात् लबानोन के देवदार जो उसी के लगाए हुए हैं। 17 उनमें चिड़ियाँ अपने घोंसले बनाती हैं; सारस का बसेरा सनोवर के वृक्षों में होता है। 18 ऊँचे पहाड़ जंगली बकरों के लिये हैं; और चट्टानें शापानों के शरणस्थान हैं। 19 उसने नियत समयों के लिये चन्द्रमा को बनाया है*; सूर्य अपने अस्त होने का समय जानता है। 20 तू अंधकार करता है, तब रात हो जाती है; जिसमें वन के सब जीव-जन्तु घूमते-फिरते हैं। 21 जवान सिंह अहेर के लिये गर्जते हैं, और परमेश्‍वर से अपना आहार माँगते हैं। 22 सूर्य उदय होते ही वे चले जाते हैं और अपनी माँदों में विश्राम करते हैं। 23 तब मनुष्य अपने काम के लिये और संध्या तक परिश्रम करने के लिये निकलता है। 24 हे यहोवा, तेरे काम अनगिनत हैं! इन सब वस्तुओं को तूने बुद्धि से बनाया है; पृथ्वी तेरी सम्पत्ति से परिपूर्ण है। 25 इसी प्रकार समुद्र बड़ा और बहुत ही चौड़ा है, और उसमें अनगिनत जलचर जीव-जन्तु, क्या छोटे, क्या बड़े भरे पड़े हैं। 26 उसमें जहाज भी आते जाते हैं, और लिव्यातान भी जिसे तूने वहाँ खेलने के लिये बनाया है। 27 इन सब को तेरा ही आसरा है, कि तू उनका आहार समय पर दिया करे। 28 तू उन्हें देता है, वे चुन लेते हैं; तू अपनी मुट्ठी खोलता है और वे उत्तम पदार्थों से तृप्त होते हैं। 29 तू मुख फेर लेता है, और वे घबरा जाते हैं; तू उनकी साँस ले लेता है, और उनके प्राण छूट जाते हैं और मिट्टी में फिर मिल जाते हैं। 30 फिर तू अपनी ओर से साँस भेजता है, और वे सिरजे जाते हैं; और तू धरती को नया कर देता है*। 31 यहोवा की महिमा सदा काल बनी रहे, यहोवा अपने कामों से आनन्दित होवे! 32 उसकी दृष्टि ही से पृथ्वी काँप उठती है, और उसके छूते ही पहाड़ों से धुआँ निकलता है। 33 मैं जीवन भर यहोवा का गीत गाता रहूँगा; जब तक मैं बना रहूँगा तब तक अपने परमेश्‍वर का भजन गाता रहूँगा। 34 मेरे सोच-विचार उसको प्रिय लगे, क्योंकि मैं तो यहोवा के कारण आनन्दित रहूँगा। 35 पापी लोग पृथ्वी पर से मिट जाएँ, और दुष्ट लोग आगे को न रहें! हे मेरे मन यहोवा को धन्य कह! यहोवा की स्तुति करो!
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