1. {#1इस्राएल को सुसमाचार की आवश्यकता } [PS]हे भाइयों, मेरे मन की अभिलाषा और उनके लिये परमेश्वर से मेरी प्रार्थना है, कि वे उद्धार पाएँ*।
2. क्योंकि मैं उनकी गवाही देता हूँ, कि उनको परमेश्वर के लिये धुन रहती है, परन्तु बुद्धिमानी के साथ नहीं।
3. क्योंकि वे परमेश्वर की धार्मिकता* से अनजान होकर, अपनी धार्मिकता स्थापित करने का यत्न करके, परमेश्वर की धार्मिकता के अधीन न हुए। [PE]
4. [PS]क्योंकि हर एक विश्वास करनेवाले के लिये धार्मिकता के निमित्त मसीह व्यवस्था का अन्त है।
5. क्योंकि मूसा व्यवस्था से प्राप्त धार्मिकता के विषय में यह लिखता है: “जो व्यक्ति उनका पालन करता है, वह उनसे जीवित रहेगा।” (लैव्य. 18:5) [PE]
6. [PS]परन्तु जो धार्मिकता विश्वास से है, वह यह कहती है, “तू अपने मन में यह न कहना कि स्वर्ग पर कौन चढ़ेगा?” (अर्थात् मसीह को उतार लाने के लिये),
7. या “अधोलोक में कौन उतरेगा?” (अर्थात् मसीह को मरे हुओं में से जिलाकर ऊपर लाने के लिये!) [PE]
8. [PS]परन्तु क्या कहती है? यह, कि [PE][QS]“वचन तेरे निकट है, [QE][QS]तेरे मुँह में और तेरे मन में है,” [QE][PS]यह वही विश्वास का वचन है, जो हम प्रचार करते हैं।
9. कि यदि तू अपने मुँह से यीशु को प्रभु जानकर अंगीकार करे और अपने मन से विश्वास करे, कि परमेश्वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उद्धार पाएगा। (प्रेरि. 16:31)
10. क्योंकि धार्मिकता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुँह से अंगीकार* किया जाता है। [PE]
11. [PS]क्योंकि पवित्रशास्त्र यह कहता है, “जो कोई उस पर विश्वास करेगा, वह लज्जित न होगा।” (यिर्म. 17:7)
12. यहूदियों और यूनानियों में कुछ भेद नहीं, इसलिए कि वह सब का प्रभु है; और अपने सब नाम लेनेवालों के लिये उदार है।
13. क्योंकि “जो कोई प्रभु का नाम लेगा, वह उद्धार पाएगा।” (प्रेरि. 2:21, योए. 2:32) [PE]
14. {#1इस्राएल का सुसमाचार को नकारना } [PS]फिर जिस पर उन्होंने विश्वास नहीं किया, वे उसका नाम क्यों लें? और जिसकी नहीं सुनी उस पर क्यों विश्वास करें? और प्रचारक बिना क्यों सुनें?
15. और यदि भेजे न जाएँ, तो क्यों प्रचार करें? जैसा लिखा है, “उनके पाँव क्या ही सुहावने हैं, जो अच्छी बातों का सुसमाचार सुनाते हैं!” (यशा. 52:7, नहू. 1:15) [PE]
16. [PS]परन्तु सब ने उस सुसमाचार पर कान न लगाया। यशायाह कहता है, “हे प्रभु, किस ने हमारे समाचार पर विश्वास किया है?” (यशा. 53:1)
17. इसलिए विश्वास सुनने से, और सुनना मसीह के वचन से होता है। [PE]
18. [PS]परन्तु मैं कहता हूँ, “क्या उन्होंने नहीं सुना?” सुना तो सही क्योंकि लिखा है, [PE][QS]“उनके स्वर सारी पृथ्वी पर, [QE][QS]और उनके वचन जगत की छोर तक पहुँच गए हैं।” (भज. 19:4) [QE]
19. [PS]फिर मैं कहता हूँ। क्या इस्राएली नहीं जानते थे? पहले तो मूसा कहता है, [PE][QS]“मैं उनके द्वारा जो जाति नहीं, तुम्हारे मन में जलन उपजाऊँगा, [QE][QS]मैं एक मूर्ख जाति के द्वारा तुम्हें रिस दिलाऊँगा।” (व्य. 32:21) [QE]
20. [PS]फिर यशायाह बड़े साहस के साथ कहता है, [PE][QS]“जो मुझे नहीं ढूँढ़ते थे, उन्होंने मुझे पा लिया; [QE][QS]और जो मुझे पूछते भी न थे, उन पर मैं प्रगट हो गया।” [QE]
21. [MS] परन्तु इस्राएल के विषय में वह यह कहता है “मैं सारे दिन अपने हाथ एक आज्ञा न माननेवाली और विवाद करनेवाली प्रजा की ओर पसारे रहा।” (यशा. 65:1-2) [ME]