पवित्र बाइबिल

समकालीन संस्करण खोलें (OCV)
अय्यूब
1. [QS]“स्त्री से जन्मे मनुष्य का जीवन, [QE][QS2]अल्पकालिक एवं दुःख भरा होता है. [QE]
2. [QS]उस पुष्प समान, जो खिलता है तथा मुरझा जाता है; [QE][QS2]वह तो छाया-समान द्रुत गति से विलीन हो जाता तथा अस्तित्वहीन रह जाता है. [QE]
3. [QS]क्या इस प्रकार का प्राणी इस योग्य है कि आप उस पर दृष्टि बनाए रखें [QE][QS2]तथा उसका न्याय करने के लिए उसे अपनी उपस्थिति में आने दें? [QE]
4. [QS]अशुद्ध में से किसी शुद्ध वस्तु की सृष्टि कौन कर सकता है? [QE][QS2]कोई भी इस योग्य नहीं है! [QE]
5. [QS]इसलिये कि मनुष्य का जीवन सीमित है; [QE][QS2]उसके जीवन के माह आपने नियत कर रखे हैं. [QE][QS2]साथ आपने उसकी सीमाएं निर्धारित कर दी हैं, कि वह इनके पार न जा सके. [QE]
6. [QS]जब तक वह वैतनिक मज़दूर समान अपना समय पूर्ण करता है उस पर से अपनी दृष्टि हटा लीजिए, [QE][QS2]कि उसे विश्राम प्राप्‍त हो सके. [QE][PBR]
7. [QS]“वृक्ष के लिए तो सदैव आशा बनी रहती है: [QE][QS2]जब उसे काटा जाता है, [QE][QS2]उसके तने से अंकुर निकल आते हैं. उसकी डालियां विकसित हो जाती हैं. [QE]
8. [QS]यद्यपि भूमि के भीतर इसकी मूल जीर्ण होती जाती है [QE][QS2]तथा भूमि में इसका ठूंठ नष्ट हो जाता है, [QE]
9. [QS]जल की गंध प्राप्‍त होते ही यह खिलने लगता है [QE][QS2]तथा पौधे के समान यह अपनी शाखाएं फैलाने लगता है. [QE]
10. [QS]किंतु मनुष्य है कि, मृत्यु होने पर वह पड़ा रह जाता है; [QE][QS2]उसका श्वास समाप्‍त हुआ, कि वह अस्तित्वहीन रह जाता है. [QE]
11. [QS]जैसे सागर का जल सूखते रहता है [QE][QS2]तथा नदी धूप से सूख जाती है, [QE]
12. [QS]उसी प्रकार मनुष्य, मृत्यु में पड़ा हुआ लेटा रह जाता है; [QE][QS2]आकाश के अस्तित्वहीन होने तक उसकी स्थिति यही रहेगी, [QE][QS2]उसे इस गहरी नींद से जगाया जाना असंभव है. [QE][PBR]
13. [QS]“उत्तम तो यही होता कि आप मुझे अधोलोक में छिपा देते, [QE][QS2]आप मुझे अपने कोप के ठंडा होने तक छिपाए रहते! [QE][QS]आप एक अवधि निश्चित करके [QE][QS2]इसके पूर्ण हो जाने पर मेरा स्मरण करते! [QE]
14. [QS]क्या मनुष्य के लिए यह संभव है कि उसकी मृत्यु के बाद वह जीवित हो जाए? [QE][QS2]अपने जीवन के समस्त श्रमपूर्ण वर्षों में मैं यही प्रतीक्षा करता रह जाऊंगा. [QE][QS2]कब होगा वह नवोदय? [QE]
15. [QS]आप आह्वान करो, तो मैं उत्तर दूंगा; [QE][QS2]आप अपने उस बनाए गये प्राणी की लालसा करेंगे. [QE]
16. [QS]तब आप मेरे पैरों का लेख रखेंगे [QE][QS2]किंतु मेरे पापों का नहीं. [QE]
17. [QS]मेरे अपराध को एक थैली में मोहरबन्द कर दिया जाएगा; [QE][QS2]आप मेरे पापों को ढांप देंगे. [QE][PBR]
18. [QS]“जैसे पर्वत नष्ट होते-होते वह चूर-चूर हो जाता है, [QE][QS2]चट्टान अपने स्थान से हट जाती है. [QE]
19. [QS]जल में भी पत्थरों को काटने की क्षमता होती है, [QE][QS2]तीव्र जल प्रवाह पृथ्वी की धूल साथ ले जाते हैं, [QE][QS2]आप भी मनुष्य की आशा के साथ यही करते हैं. [QE]
20. [QS]एक ही बार आप उसे ऐसा हराते हैं, कि वह मिट जाता है; [QE][QS2]आप उसका स्वरूप परिवर्तित कर देते हैं और उसे निकाल देते हैं. [QE]
21. [QS]यदि उसकी संतान सम्मानित होती है, उसे तो इसका ज्ञान नहीं होता; [QE][QS2]अथवा जब वे अपमानित किए जाते हैं, वे इससे अनजान ही रहते हैं. [QE]
22. [QS]जब तक वह देह में होता है, पीड़ा का अनुभव करता है, [QE][QS2]इसी स्थिति में उसे वेदना का अनुभव होता है.” [QE]
Total 42 अध्याय, Selected अध्याय 14 / 42
1 “स्त्री से जन्मे मनुष्य का जीवन, अल्पकालिक एवं दुःख भरा होता है. 2 उस पुष्प समान, जो खिलता है तथा मुरझा जाता है; वह तो छाया-समान द्रुत गति से विलीन हो जाता तथा अस्तित्वहीन रह जाता है. 3 क्या इस प्रकार का प्राणी इस योग्य है कि आप उस पर दृष्टि बनाए रखें तथा उसका न्याय करने के लिए उसे अपनी उपस्थिति में आने दें? 4 अशुद्ध में से किसी शुद्ध वस्तु की सृष्टि कौन कर सकता है? कोई भी इस योग्य नहीं है! 5 इसलिये कि मनुष्य का जीवन सीमित है; उसके जीवन के माह आपने नियत कर रखे हैं. साथ आपने उसकी सीमाएं निर्धारित कर दी हैं, कि वह इनके पार न जा सके. 6 जब तक वह वैतनिक मज़दूर समान अपना समय पूर्ण करता है उस पर से अपनी दृष्टि हटा लीजिए, कि उसे विश्राम प्राप्‍त हो सके. 7 “वृक्ष के लिए तो सदैव आशा बनी रहती है: जब उसे काटा जाता है, उसके तने से अंकुर निकल आते हैं. उसकी डालियां विकसित हो जाती हैं. 8 यद्यपि भूमि के भीतर इसकी मूल जीर्ण होती जाती है तथा भूमि में इसका ठूंठ नष्ट हो जाता है, 9 जल की गंध प्राप्‍त होते ही यह खिलने लगता है तथा पौधे के समान यह अपनी शाखाएं फैलाने लगता है. 10 किंतु मनुष्य है कि, मृत्यु होने पर वह पड़ा रह जाता है; उसका श्वास समाप्‍त हुआ, कि वह अस्तित्वहीन रह जाता है. 11 जैसे सागर का जल सूखते रहता है तथा नदी धूप से सूख जाती है, 12 उसी प्रकार मनुष्य, मृत्यु में पड़ा हुआ लेटा रह जाता है; आकाश के अस्तित्वहीन होने तक उसकी स्थिति यही रहेगी, उसे इस गहरी नींद से जगाया जाना असंभव है. 13 “उत्तम तो यही होता कि आप मुझे अधोलोक में छिपा देते, आप मुझे अपने कोप के ठंडा होने तक छिपाए रहते! आप एक अवधि निश्चित करके इसके पूर्ण हो जाने पर मेरा स्मरण करते! 14 क्या मनुष्य के लिए यह संभव है कि उसकी मृत्यु के बाद वह जीवित हो जाए? अपने जीवन के समस्त श्रमपूर्ण वर्षों में मैं यही प्रतीक्षा करता रह जाऊंगा. कब होगा वह नवोदय? 15 आप आह्वान करो, तो मैं उत्तर दूंगा; आप अपने उस बनाए गये प्राणी की लालसा करेंगे. 16 तब आप मेरे पैरों का लेख रखेंगे किंतु मेरे पापों का नहीं. 17 मेरे अपराध को एक थैली में मोहरबन्द कर दिया जाएगा; आप मेरे पापों को ढांप देंगे. 18 “जैसे पर्वत नष्ट होते-होते वह चूर-चूर हो जाता है, चट्टान अपने स्थान से हट जाती है. 19 जल में भी पत्थरों को काटने की क्षमता होती है, तीव्र जल प्रवाह पृथ्वी की धूल साथ ले जाते हैं, आप भी मनुष्य की आशा के साथ यही करते हैं. 20 एक ही बार आप उसे ऐसा हराते हैं, कि वह मिट जाता है; आप उसका स्वरूप परिवर्तित कर देते हैं और उसे निकाल देते हैं. 21 यदि उसकी संतान सम्मानित होती है, उसे तो इसका ज्ञान नहीं होता; अथवा जब वे अपमानित किए जाते हैं, वे इससे अनजान ही रहते हैं. 22 जब तक वह देह में होता है, पीड़ा का अनुभव करता है, इसी स्थिति में उसे वेदना का अनुभव होता है.”
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