1. [PS]प्रिय भाई बहिनो, उनका उद्धार ही मेरी हार्दिक अभिलाषा तथा परमेश्वर से मेरी प्रार्थना का विषय है.
2. उनके विषय में मैं यह गवाही देता हूं कि उनमें परमेश्वर के प्रति उत्साह तो है किंतु उनका यह उत्साह वास्तविक ज्ञान के अनुसार नहीं है.
3. परमेश्वर की धार्मिकता के विषय में अज्ञानता तथा अपनी ही धार्मिकता की स्थापना करने के उत्साह में उन्होंने स्वयं को परमेश्वर की धार्मिकता के अधीन नहीं किया.
4. उस हर एक व्यक्ति के लिए, जो मसीह में विश्वास करता है, मसीह ही धार्मिकता की व्यवस्था की समाप्ति हैं. [PE]
5. [PS]मोशेह के अनुसार व्यवस्था पर आधारित धार्मिकता है, जो इनका अनुसरण करेगा, वह इनके कारण जीवित रहेगा.[* लेवी 18:5 ]
6. किंतु विश्वास पर आधारित धार्मिकता का भेद है: अपने मन में यह विचार न करो: स्वर्ग पर कौन चढ़ेगा, मसीह को उतार लाने के लिए?[† व्यव 30:12 ]
7. या मसीह को मरे हुओं में से जीवित करने के उद्देश्य से पाताल में कौन उतरेगा?[‡ व्यव 30:13 ]
8. क्या है इसका मतलब: परमेश्वर का वचन तुम्हारे पास है—तुम्हारे मुख में तथा तुम्हारे हृदय में—विश्वास का वह संदेश, जो हमारे प्रचार का विषय है:
9. इसलिये यदि तुम अपने मुख से मसीह येशु को प्रभु स्वीकार करते हो तथा हृदय में यह विश्वास करते हो कि परमेश्वर ने उन्हें मरे हुओं में से जीवित किया है तो तुम्हें उद्धार प्राप्त होगा,
10. क्योंकि विश्वास हृदय से किया जाता है, जिसका परिणाम है धार्मिकता तथा स्वीकृति मुख से होती है, जिसका परिणाम है उद्धार.
11. पवित्र शास्त्र का लेख है: हर एक, जो उनमें विश्वास करेगा, वह लज्जित कभी न होगा.[§ यशा 28:16 ]
12. यहूदी तथा यूनानी में कोई भेद नहीं रह गया क्योंकि एक ही प्रभु सबके प्रभु हैं, जो उन सबके लिए, जो उनकी दोहाई देते हैं, अपार संपदा हैं.
13. क्योंकि हर एक, जो प्रभु को पुकारेगा, उद्धार प्राप्त करेगा.[* योए 2:32 ] [PE]
14. [PS]वे भला उन्हें कैसे पुकारेंगे जिनमें उन्होंने विश्वास ही नहीं किया? वे भला उनमें विश्वास कैसे करेंगे, जिन्हें उन्होंने सुना ही नहीं? और वे भला सुनेंगे कैसे यदि उनकी उद्घोषणा करनेवाला नहीं?
15. और प्रचारक प्रचार कैसे कर सकेंगे यदि उन्हें भेजा ही नहीं गया? जैसा कि पवित्र शास्त्र का लेख है: कैसे सुहावने हैं वे चरण जिनके द्वारा अच्छी बातों का सुसमाचार लाया जाता है![† यशा 52:7 ] [PE]
16. [PS]फिर भी सभी ने ईश्वरीय सुसमाचार पर ध्यान नहीं दिया. भविष्यवक्ता यशायाह का लेख है: “प्रभु! किसने हमारी बातों पर विश्वास किया?”[‡ यशा 53:1 ]
17. इसलिये स्पष्ट है कि विश्वास की उत्पत्ति होती है सुनने के माध्यम से तथा सुनना मसीह के वचन के माध्यम से.
18. किंतु अब प्रश्न यह है: क्या उन्होंने सुना नहीं? निःसंदेह उन्होंने सुना है: [PE][QS]उनका शब्द सारी पृथ्वी में तथा, [QE][QS2]उनका संदेश पृथ्वी के छोर तक पहुंच चुका है.[§ स्तोत्र 19:4 ] [QE]
19. [MS] मेरा प्रश्न है, क्या इस्राएली इसे समझ सके? पहले मोशेह ने कहा: [ME][QS]मैं एक ऐसी जनता के द्वारा तुममें जलनभाव उत्पन्न करूंगा, [QE][QS2]जो राष्ट्र है ही नहीं. [QE][QS2]मैं तुम्हें एक ऐसे राष्ट्र के द्वारा क्रोधित करूंगा, जिसमें समझ है ही नहीं.[* व्यव 32:21 ] [QE]
20. [MS] इसके बाद भविष्यवक्ता यशायाह निडरतापूर्वक कहते हैं: [ME][QS]मुझे तो उन्होंने पा लिया, जो मुझे खोज भी नहीं रहे थे तथा मैं उन पर प्रकट हो गया, [QE][QS2]जिन्होंने इसकी कामना भी नहीं की थी.[† यशा 65:1 ] [QE]
21. [MS] इस्राएल के विषय में परमेश्वर का कथन है: [ME][QS]“मैं आज्ञा न माननेवाली और [QE][QS2]हठीली प्रजा के सामने पूरे दिन हाथ पसारे रहा.”[‡ यशा 65:2 ] [QE]