1. हे भाइयों, मैं नहीं चाहता, कि तुम इस बात से अज्ञात रहो, कि हमारे सब बापदादे बादल के नीचे थे, और सब के सब समुद्र के बीच से पार हो गए।
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4. और सब ने एक ही आत्मिक जल पीया, क्योंकि वे उस आत्मिक चटान से पीते थे, जो उन के साथ- साथ चलती थी; और वह चटान मसीह था।
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6. ये बातें हमारे लिये दृष्टान्त ठहरी, कि जैसे उन्हों ने लालच किया, वैसे हम बुरी वस्तुओं का लालच न करें।
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7. और न तुम मूरत पूजनेवाले बनों; जैसे कि उन में से कितने बन गए थे, जैसा लिखा है, कि लोग खाने- पीने बैठे, और खेलने- कूदने उठे।
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10. और नतुम कुड़कुड़ाए, जिस रीति से उन में से कितने कुड़कुड़ाए, और नाश करनेवाले के द्वारा नाश किए गए।
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11. परन्तु ये सब बातें, जो उन पर पड़ी, दृष्टान्त की रीति पर भी: और वे हमारी चितावनी के लिये जो जगत के अन्तिम समय में रहते हैं लिखी गईं हैं।
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13. तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है: और परमेश्वर सच्चा है: वह तुम्हें सामर्थ से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, बरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको।।
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16. वह धन्यवाद का कटोरा, जिस पर हम धन्यवाद करते हैं, क्या मसीह के लोहू की सहभागिता नहीं? वह रोटी जिसे हम तोड़ते हैं, क्या मसीह की देह की सहभागिता नहीं?
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17. इसलिये, कि एक ही रोटी है सो हम भी जो बहुत हैं, एक देह हैं: क्योंकि हम सब उसी एक रोटी में भागी होते हैं।
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20. नहीं, बरन यह, कि अन्यजाति जो बलिदान करते हैं, वे परमेश्वर के लिये नहीं, परन्तु दुष्टात्माओं के लिये बलिदान करते हैं: और मैं नहीं चाहता, कि तुम दुष्टात्माओं के सहभागी हो।
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21. तुम प्रभु के कटोरे, और दुष्टात्माओं के कटोरे दानों में से नहीं पी सकते! तुम प्रभु की मेज और दुष्टात्माओं की मेज दानों के साझी नहीं हो सकते।
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23. सब वस्तुएं मेरे लिये उचित तो हैं, परन्तु सब लाभ की नहीं: सब वस्तुएं मेरे लिये उचित तो हैं, परन्तु सब वस्तुओं से उन्नित नहीं।
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27. और यदि अविश्वायिों में से कोई तुम्हें नेवता दे, और तुम जाना चाहो, तो जो कुछ तुम्हारे साम्हने रखा जाए वही खाओ: और विवेक के कारण कुछ न पूछो।
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28. परन्तु यदि कोई तुम से कहे, यह तो मूरत को बलि की हुई वस्तु है, तो उसी बतानेवाले के कारण, और विवेक के कारण न खाओ।
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29. मेरा मतलब, तेरा विवेक नहीं, परन्तु उस दूसरे का। भला, मेरी स्वतंत्राता दूसरे के विचार से क्यों परखी जाए:
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30. यदि मैं धन्यवाद करके साझी होता हूं, तो जिस पर मैं धन्यवाद करता हूं, उसके कारण मेरी बदनामीं क्यों होती है?
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33. जैसा मैं भी सब बातों में सब को प्रसन्न रखता हूं, और अपना नहीं, परन्तु बहुतों का लाभ ढूंढ़ता हूं, कि वे उद्धार पाएं।
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